मैं अपनी किस्मत पे रोऊं या अपने मुकद्दर पे रोऊं तू ही बता ऐ हमनवां जा के किस के दर पे रोऊं। जिन रस्तों पर साथ था मेरे अब हर उस एक डगर पे रोऊं दीवानगी के आलम में गुज़रे मैं हर उस एक सफर पे रोऊं। चांद सा मुखड़ा याद है मुझको देख के उस क़मर को रोऊं जो बीज इश्क का बोया तूने मैं बैठकर उस शजर पे रोऊं। अब खुश है साथ वो किसी और के सुनकर क्या इस खबर पे रोऊं दिल में उतरती, टुकड़े करती तेरी उस इक नज़र पे रोऊं। लफ़्ज़ क्या अल्फ़ाज़ भी बिगड़े अब क्या ज़ेरो ज़बर पे रोऊं झूठी तसल्ली अब रास नहीं मैं उसकी सच्ची क़दर पे रोऊं। जो वक्त था गुजरा तेरे साथ में उस पल, उस शाम ओ सहर पे रोऊं। मजनूँ जैसा तो प्यार न मेरा "सैफ़ी" इश्क़ की कबर पे रोऊं। ◆◆◆ "सैफ़ी" ◆◆◆ (क़मर-चाँद) (शजर-पेड़)